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उसका दोष क्या है भाग - 12 15 पार्ट सीरीज

      उसका दोष क्या है (भाग - 12)

             कहानी अब तक
   विद्या और रमेश की शादी हो गई l रमेश की पहली पत्नी शादी के समय से ही रमेश के साथ नहीं रह रही थी l पता चला वह गांव में रह रही है,खेती देख रही है। अक्सर रमेश के माता-पिता भी गांव चले जाते।
              अब आगे 
विद्या का विवाहित जीवन सुख पूर्वक व्यतीत हो रहा था इस बीच रमेश ने अपने लिए एक नया मकान बनाने की योजना बनाई। इस संबंध में उसने विद्या से बात किया।
  विद्या -  "क्या जमीन आपने देख लिया"?
  रमेश -  "जमीन देखने की क्या आवश्यकता है,हमारी यह जमीन तो है ही। पुराने ढंग का जो मकान बना हुआ है उसके सामने हम अपना नया मकान बना लेंगे। मैं आज ही नक्शा बनवाता हूं। नक्शा पास भी करवाना होगा"।
  विद्या  -  "आपकी जैसी इच्छा"।
रमेश विद्या को लेकर जमीन के नक्शा सहित आर्किटेक्ट से मिला,और अपनी आवश्यकतानुसार नक्शा बनाने के लिए उसे काम दे दिया। उन्होंने चार बेडरूम का बड़ा सा मकान बनाने की योजना बनाई थी,जिसमें अतिथि के लिए अलग से कमरा,संलग्न शौचालय एवं एक बालकनी सहित थोड़ा खुला स्थान भी होता। वह घर से सँलग्न भी होता और दरवाजा बन्द करने पर अलग हो जाता। कुल मिलाकर मकान बड़ा था,अच्छी खासी राशि उसमें लग रही थी।
  नक्शा बन कर आ गया। मकान बनना प्रारम्भ होने लगा तो रमेश ने विद्या से कुछ पैसे निकाल कर देने के लिए कहा भवन निर्माण की सामग्री खरीदने के लिए। विद्या ने आश्चर्य चकित दृष्टि से रमेश को देखा। उसके आश्चर्य को देखते हुए रमेश ने सफाई दी -  
   "विद्या मुझे अच्छा नहीं लग रहा था इस पुराने बने खपरैल घर में तुम्हें रखूं। आखिर तुम मेरा पहला प्यार हो,तुम्हें लेकर मैंने कितने सपने देखे हैं।
 तुम्हें यहाँ कितनी परेशानी हो रही है,देख   रहा हूँ। मैं चाहता हूं जल्द से जल्द यह घर बन जाए जिससे तुम्हें किसी तरह की कोई परेशानी नहीं हो। अब ऐसा है कि मेरे पैसे तो सारे व्यवसाय में लगे हुए हैं, यदि निकालता हूं तो व्यवसाय बंद होने का खतरा है । इसलिए तुम यदि अपनी जमा रकम से मकान का काम प्रारंभ कर दो तो अच्छा रहता। आखिर मकान तो हम दोनों का ही है"। 
विद्या  -  "वह तो ठीक है परंतु मकान बनाने में जितने का बजट है इतने पैसे कहां हैं मेरे पास"!
  रमेश  -  "चिंता क्यों करती हो। बैंक वालों से मैंने बात की है,लोन दे देंगे। मेरे व्यवसाय पर भी मैंने ऐसे ही लोन लिया हुआ है। गांव की जमीन मैंने उस लोन में गारंटी के तौर पर दी हुई है। इसलिये गांव की जमीन अब गारंटी के तौर पर नहीं दे सकता। उस जमीन को गारंटी के रूप में दिया तो उस पर लोन स्वीकृति में परेशानी हो रही है । बैंक वाले एक गारंटी पर दो कर्ज देने को नहीं तैयार हो रहे हैं। परंतु उन्होंने कहा है तुम्हारी सैलरी अकाउंट बैंक में है, उस पर लोन मिल जाएगा। हमारा मकान पूरा हो जाएगा और तुम्हें खर्चा ही क्या करना है। तुम्हारा रोज का खर्चा तो मैं उठा ही सकता हूं। तो तुम अपनी सैलरी से अगर बैंक के लोन का किश्त भरती हो तो कोई परेशानी नहीं होगी। हमारा मकान तैयार हो जाएगा। सोचो तब हम कितने आराम से रहेंगे। अभी तो हम सिर्फ दो हैं,आगे हमारी संतान होगी, उन्हें कैसे उस टूटे-फूटे घर में रखेंगे। उनके आने से पहले उनके स्वागत के लिए हम क्यों न अच्छा मकान बना लें,इसीलिए मैं यह सब कर रहा हूं। मेरी तो आदत है उस पुराने मकान में रहने की, परंतु तुम्हें मैं नहीं देख सकता इतनी तकलीफ में। और फिर इसके बाद हमारी आने वाली संतान उसे तो मैं बिल्कुल ही तकलीफ में नहीं देख सकता। रमेश की आंखें भीग गईं। वह बहुत भावुक हो गया था। विद्या खामोश हो चुकी थी,वह आश्चर्यचकित थी। रमेश इतना भावुक भी है,उसने सोचा नहीं था।
  उसे गर्व हो आया अपने आप पर। उसे इतना चाहने वाला पति मिला है। सच ही तो है अच्छे घर में रहना किस का सपना नहीं होता। कल को जब उसकी संतान होगी तो उस पुराने मकान में - जो खपरैल है उसे कितनी परेशानी होगी। बरसात और ठंड में कितना मुश्किल होता है। स्नानघर और शौचालय भी अंतिम छोर पर एक किनारे हैं,जहां बरसात में या तो भींग कर जाना होता है या फिर छाता की सहायता से। तो विद्या ने इस बात को स्वीकार कर लिया और बैंक का चेक बुक निकाल चेक में साइन करके रमेश को दे दिया। कुछ सादे चेक में ही रमेश ने उसके हस्ताक्षर ले लिए। उसका कहना था आवश्यकता के अनुसार ही इसमें वह राशि भरेगा। एक साथ अधिक पैसे निकालकर क्यों घर में रखे जाएं!
  उसके साथ बैंक जाकर मकान बनाने के लिए लोन की कार्यवाही को भी पूरा किया विद्या ने । मकान बनाने का सारा काम रमेश ही देख रहा था,वह भी अपनी दुकान संभालते हुए। विद्या तो सिर्फ स्कूल जा रही थी और आ रही थी। घर की व्यवस्था भी देखनी पर रही थी क्योंकि आजकल सासु मां अधिकतर गांव रह रही थीं।
  विद्या कई बार गाँव ले जाने की बात कर चुकी थी परन्तु रमेश ने हर बार टाल दिया था। एक दिन विद्या ने रमेश से गांव ले जाने के लिए जिद किया तो रमेश ने कहा -  
   "हाँ-हाँ चलेंगे हम लोग गांव,पहले अपना मकान बन जाने दो,यहां गृह प्रवेश की पूजा करके उसके बाद गांव चलेंगे,उस समय तो तुम्हारी गर्मी छुट्टी भी  रहेगी तो कम से कम हफ्ता दिन वहां रहेंगे। फिर हम लोग कहीं घूमने चलेंगे"।
  विद्या मान गई, मकान बनना प्रारंभ हो गया । मकान के लिए लोन भी स्वीकृत हो गया था,उसमें कोई परेशानी नहीं हुई। विद्या की स्थाई नौकरी हो गई थी,उसमें भी वह कई वर्ष तक काम कर चुकी थी। इसलिए बैंक को कर्ज स्वीकृत करने में कोई आपत्ति नहीं थी।
    उनका मकान बनकर तैयार हो गया था। बहुत ही भव्य मकान बना था,विद्या अपने मकान को देखकर बहुत खुश थी। लेकिन उसे अभी जो परेशानी हो रही थी,उसपर उसने पहले ध्यान नहीं दिया था। उसकी मासिक आय से लगभग अस्सी प्रतिशत राशि कर्ज के विरुद्ध मासिक किश्त के रूप में बैंक से ही ले लिया जा रहा था,और उसके हाथ में बहुत कम पैसे बच रहे थे।
  ऐसे में वह अपने माता-पिता की कुछ भी सहायता नहीं कर पा रही थी,जबकि पहले वह प्रत्येक माह अपने माता पिता को एक निश्चित धनराशि देती थी,जो उनके स्वास्थ्य की देखभाल में काम देता या, साथ ही उस राशि से  अपना अन्य कोई भी खर्च वे कर सकते थे। आखिर विद्या को इस लायक उन्होंने ही तो बनाया था, इसलिए विद्या का अपने माता पिता के प्रति भी कर्तव्य था। वह आपने इस कर्तव्य का अब तक कुशलता से निर्वहन करती आ रही थी। 
    मकान बनने में जमा राशि पूरी तरह समाप्त हो जाने और बैंक से लिए गए कर्ज की किश्त के रूप में अपने मासिक वेतन से व्यय हो जाने के कारण अब वह इस कर्तव्य का पालन करने में असमर्थ हो गई थी।
   इसलिए अब वह हमेशा चिंता ग्रस्त रहने लगी थी। सबसे अधिक वह इस बात को लेकर चिंतित थी,अभी यदि उसके माता-पिता को स्वास्थ्य संबंधित कोई बड़ी परेशानी होगी तो क्या करेगी। क्योंकि उसके बैंक का अकाउंट पूरा खाली हो गया था। और अब मासिक  सैलरी से भी 80% राशि किस्त में निकल जा रही थी। इतने में वह अपना ऊपरी खर्चा निकाले या माता-पिता को दे। कहने को रमेश उसको प्रत्येक दिन कुछ रुपए देता था,परंतु वह तो उसके बस भाड़ा के लिए भी पर्याप्त नहीं होता था। उसने जब रमेश से कुछ और पैसे के लिए कहा तो रमेश ने उसे अपनी मजबूरी दिखाते हुए मना कर दिया।
   रमेश -   "देखो विद्या हमारे मकान का बजट कुछ अधिक हो गया। आर्किटेक्ट ने जितनी अनुमानित राशि बताई थी उससे काफी अधिक लग गया है। अब बैंक ने तो अनुमानित राशि के अनुसार ही कर्ज दिया था,और तुम्हारे अकाउंट के पैसे से हमने प्रारंभ में निर्माण कर लिया। ऐसे में आगे का काम अटक गया था तो मुझे बाजार से सूद पर कर्ज लेना पड़ा। अब प्रत्येक माह उसकी किश्त की राशि भी देनी होती है। उनका ब्याज दर भी अधिक है इसलिए मुझे परेशानी हो रही है । बस एक बार उधार चुकता हो जाने दो,तुम्हें कभी किसी बात की कोई कमी नहीं होगी"।
  मकान बन गया था लेकिन अभी तक गांव जाने का रमेश कार्यक्रम नहीं बना रहा था। और गांव जाने के साथ उसने पहले कहीं बाहर घूमने की भी योजना बनाई थी,परंतु अब वह सारी योजना खटाई में पड़ गई थी। रमेश का कहना था-  
   "बाहर घूमने जाने में कम से कम 45-50 हजार का खर्चा पड़ेगा। उतना अभी हम कर्जे वालों को किश्त के रूप में दे दें तो कर्ज की राशि कुछ कम हो जाएगी। इसलिए अभी बाहर जाना मुमकिन नहीं लग रहा है। हां तुम चाहो तो अपने मायके चली जाओ या अपने मां बाबा के साथ जाकर उन्हें कोई तीर्थ स्थल घुमा लाओ,उसकी मैं व्यवस्था कर दे सकता हूं। क्योंकि उसमें बहुत अधिक राशि नहीं लगेगी। यहां बहुत से टूर प्लानर हैं जो धार्मिक यात्राएं करवाते हैं।तुम कहो तो मैं किसी टूर के लिए बुक करवा देता हूं"।
   विद्या ने सोचा यह भी बुरा नहीं है,कम से कम इस तरह वह अपने मां बाबा को तीर्थ यात्रा तो करवा सकेगी। उसने हामी भर दी। रमेश ने एक टूरिस्ट कंपनी से मिलकर विद्या और उसके मां बाबा की यात्रा का एक महीने का कार्यक्रम बुक करवा दिया। विद्या अपने मां बाबा के साथ तीर्थ यात्रा के लिए निकल गई।
   एक बार उसके मन में यह विचार भी आया कहां तो रमेश बोल रहे थे हमारे घूमने में कम से कम 45-50 हजार का खर्चा आएगा इसलिये नहीं जाएँगे। परन्तु अब यह एक महीना का टूर वह भी तीन जनों का है। इसमें 50,000 से अधिक का खर्चा आ रहा है रेल एवं बस के भाड़ा का ही,इसके लिए वह तैयार हो गया। लेकिन फिर उसने इस पर ध्यान नहीं दिया,उसे लगा रमेश के जाने से उनका व्यवसाय बंद हो जाता,इसलिए शायद वह अपने घूमने का कार्यक्रम नहीं बना पाए। और विद्या को दु:ख न लगे इसलिये विद्या का मां-बाबा के साथ कार्यक्रम बना दिया। क्योंकि इधर विद्या मां बाबा की कोई आर्थिक सहायता नहीं कर पा रही थी,उन्हें लगा हो मुझे माँ बाबा के साथ तीर्थ यात्रा करा कर खुश किया जाए। विद्या ने मां बाबा के साथ पूरा माह बहुत ही अच्छे ढंग से व्यतीत किया।
  बहुत लंबी यात्रा थी,उसमें थकान तो होनी ही थी परन्तु खुशी बहुत ही अधिक थी कि माँ बाबा को उसने तीर्थ यात्रा करवा दी। यह अलग बात थी,उसका अकाउंट इस यात्रा में पूरी तरह खाली हो गया था। क्योंकि टूर प्लानर कंपनी में रास्ते के भोजन के लिए अग्रिम लिया था और कुछ कैश रास्ते के खर्च के लिये भी उसे अपने पास रखना था। रमेश ने भाड़ा के लिए नगद राशि भुगतान की थी। अग्रिम भोजन खर्च कर दी उसने उससे बहुत कम लिया था,परन्तु रास्ते का अतिरिक्त खर्च और आकस्मिक खर्च तो उसे ही सम्भलना था। टूरिस्ट कंपनी वाले से दो समय तक खाना देते थे,इसलिए भोजन के मद में अधिकतर खर्च उसे स्वयं वहन करना पड़ा था। फिर भी इस यात्रा से विद्या प्रसन्न थी माँ बाबा की खुशी देखहकर।
  उनकी यात्रा चलती रही। मां बाबा को भी विद्या के साथ घूम कर और तीर्थ यात्रा कर बहुत अच्छा लग रहा था।
रास्ते में एक दिन मां ने कहा -  "रमेश की पहली पत्नी लगातार गांव में ही रहती है,क्या उसे बुरा नहीं लगता होगा"?
  विद्या -   "सोचा तो मैंने भी बहुत लेकिन वह यहां आती नहीं है तो मैं क्या करूं! रमेश कहते हैं खेती बहुत है वहां,वह देखने के लिए भी एक आदमी चाहिए न। इसलिए वह वहीं रहती हैं। और बीच-बीच में मां पिताजी भी जाते रहते हैं। मां तो अक्सर वहीं रहती हैं। यहां बहुत कम रहती हैं"।
   मां  -   "रमेश वहां नहीं जाते"?
   विद्या -   "अभी मकान बनने के बाद हम दोनों का कार्यक्रम बना था वहां जाने का,लेकिन मैं तो तीर्थ यात्रा के लिए आ गई यहां तो वहाँ नहीं जाएंगे। हो सकता है जब मैं लौटूँ तब फिर कार्यक्रम बनाएं। कह रहे थे गृह प्रवेश के बाद गांव में जाकर कुल देवता की पूजा करेंगे"।
   मां  -  "कब है गृह प्रवेश"?
  विद्या  -  "अभी दिन निश्चित नहीं हुआ है"।
  बाबा ने कहा -  "गृह प्रवेश का दिन तो लोग महीनों पहले तय करते हैं। अभी तक निश्चित नहीं हुआ, इसका मतलब लगता है कि अभी पूजा नहीं हो पाएगी। गृह प्रवेश की पूजा के लिए तैयारी भी तो बहुत करनी होती है,और अपने सगे संबंधियों को भी बुलाते है, इसलिए थोड़ा समय तो चाहिए ही होता है"।
  विद्या खामोश रही। यह लोग तीर्थ यात्रा से वापस आए। वापसी के दिन रमेश गाड़ी लेकर उन्हें लेने बस स्टैंड गया था। वहां से उन्हें लेकर वह पहले विद्या के मायके गया मां बाबा को छोड़ने। उन्हें छोड़ने के बाद उसने विद्या को अपने साथ घर चलने के लिए कहा तो विद्या के भाइयों और भाभियों ने उन्हें रोका।
  उसकी भाभी ने कहा -  "इतने दिन के बाद तो आप लोग आए हैं, लगता नहीं है कि हम लोग एक शहर में ही रहते हैं। कम से कम आज तो यहीं रह जाइए"। उन के बहुत आग्रह पर रमेश रुका परंतु रात में खाना खाने के बाद घर वापस जाने के लिए तैयार हो गया। विद्या से कहा  -
  " तुम रुकना चाहो तो रुक जाओ,मैं जा रहा हूं । तुम एक-दो दिन या जब तक चाहो यहाँ रुक जाओ। चाहो तो यहीं से स्कूल कर लेना। और जब कहोगी मैं आकर ले जाऊंगा"।
  विद्या ने हामी भर दी। विद्या रुक गई,रमेश चला गया। उसकी भाभी ने रमेश को रोकना चाहा तो उसने कहा - 
   "भाभी इतनी देर रुका न! एक शहर है,आना जाना लगा रहेगा। आज विद्या और मां-बाबा भी थके हुए हैं,तो इन्हें भी आराम करने दीजिए। मैं घर जा रहा हूं,सुबह-सुबह मुझे दुकान खोलने के लिए जाना होता है"। कह कर वह निकल गया।
    कथा जारी है। आगे क्या हुआ विद्या के साथ, जानने के लिए बने रहें मेरे साथ।
                                       क्रमशः
         निर्मला कर्ण

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3 Comments

Alka jain

27-Jun-2023 07:50 PM

Nice 👍🏼

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Shnaya

27-Jun-2023 06:44 PM

Nice one

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वानी

17-Jun-2023 10:36 AM

Nice

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